विषयसूची
सामान्य अध्ययन-II
- विमुक्त जनजातियों की स्थिति
- सतलुज यमुना लिंक नहर
- विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ‘कोवाक्सिन’ पर रोक
सामान्य अध्ययन-III
- आईपीसीसी और इसकी आंकलन रिपोर्ट का महत्व
- ग्रीन हाइड्रोजन क्षमता
- अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम
प्रारम्भिक परीक्षा हेतु तथ्य
- अरोज आफताब
- डब्ल्यूएचओ का वायु गुणवत्ता डेटाबेस 2022
सामान्य अध्ययन–II
विषय: केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।
विमुक्त जनजातियों की स्थिति
(State Of Denotified Tribes)
संदर्भ:
हाल ही में, संसद की एक स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में, “विमुक्त (De-Notified), खानाबदोश या घुमंतू (Nomadic) और अर्ध-घुमंतू (Semi-Nomadic) जनजातियों के विकास कार्यक्रम” के कामकाज की आलोचना की है।
विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-घुमंतू जनजातियों के बारे में:
‘विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-घुमंतू जनजातियां’ (De-Notified, Nomadic And Semi-Nomadic Tribes) ऐसे समुदाय हैं, जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871’ (Criminal Tribes Act of 1871) तथा इसके बाद लागू किए जाने वाले कानूनों की एक श्रृंखला के तहत ‘जन्मजात अपराधी‘ के रूप में ‘अधिसूचित‘ किया गया था।
वर्तमान में भी ये सबसे असुरक्षित और वंचित समुदाय हैं।
इन समुदायों के कल्याण हेतु किए गए उपाय:
- वर्ष 2006 में ‘राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति आयोग’ (National Commission for De-notified, Nomadic and Semi-Nomadic Tribes – NCDNT) का गठन किया गया था। इस आयोग के अध्यक्ष ‘बालकृष्ण सिदराम रेंके’ थे।
- विमुक्त समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए योजना: विमुक्त समुदायों (DNT communities) के सदस्यों के लिए, जागरूकता एवं शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा, आजीविका की सुविधा और घरों के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए ‘विमुक्त समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए योजना’ तैयार की गई है।
- कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने के उद्देश्य से सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तत्वावधान में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत वार्स 2019 में “विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों के लिए विकास और कल्याण बोर्ड” (Development and Welfare Board for De-notified, Nomadic and Semi-Nomadic Communities – DWBDNC) की स्थापना की गई है।
- इन समुदायों की पहचान प्रक्रिया को पूरा करने के लिए नीति आयोग द्वारा एक समिति का गठन किया गया है।
- ‘भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण’ द्वारा ‘विमुक्त समुदायों’ का नृवंशविज्ञान अध्ययन किया जा रहा है, जिसके लिए 2.26 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया गया है।
वर्त्तमान मुद्दे:
- संवैधानिक आधार का अभाव: ये जनजातियाँ किसी तरह हमारे संविधान निर्माताओं के ध्यान से बच गईं और इस प्रकार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विपरीत ये समुदाय ‘संवैधानिक सुरक्षा’ से वंचित रह गए।
- वर्गीकरण विहीन: इनमें से कुछ जनजातियों को एससी, एसटी और ओबीसी के तहत वर्गीकृत किया गया है, और कुछ जनजातियां किसी समूह में वर्गीकृत नहीं की गयी हैं। और 269 विमुक्त समुदाय किसी भी आरक्षित श्रेणी के अंतर्गत नहीं आते हैं।
- विमुक्त समुदायों (DNT communities) की आर्थिक सशक्तिकरण योजना के तहत 2021-22 में कोई पैसा खर्च नहीं किया गया।
- इनके लिए 2021-22 के लिए बजटीय आवंटन 50 करोड़ रुपये के मुकाबले, 2022-23 के लिए बजटीय आवंटन को घटाकर 28 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
- विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदाय के लिए विकास और कल्याण बोर्ड (DWBDNC) के कामकाज संबंधी मुद्दे।
- इन समुदायों के लिए कोई स्थायी आयोग नहीं है।
इन समुदायों की संख्या:
- ‘रेनके आयोग’ ने 2001 की जनगणना के आधार पर उनकी आबादी लगभग 10.74 करोड़ होने का अनुमान लगाया था।
- इस आयोग द्वारा 1,262 समुदायों को विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-घुमंतू के रूप में चिह्नित किया गया है।
इन समुदायों के वंचित रहने के कारण:
- ये समुदाय मुख्य रूप से राजनीतिक रूप से ‘शांत‘ रहते हैं।
- इनके पास मुखर नेतृत्व की कमी है और एक राष्ट्रीय नेता के संरक्षण का भी अभाव है।
- शिक्षा का अभाव।
- छोटी और बिखरी हुई आबादी।
संबद्ध आयोग और समितियाँ:
- संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में आपराधिक जनजाति जांच समिति, 1947 का गठन,
- 1949 में अनंतशयनम आयंगर समिति (यह इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ को निरस्त कर दिया गया था) का गठन, और
- 1953 में गठित ‘काका कालेलकर आयोग’ (जिसे पहला ओबीसी आयोग भी कहा जाता है)।
प्रीलिम्स लिंक:
- विमुक्त जनजातियाँ।
- वन कानून।
- राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति आयोग (एनसीडीएनटी)।
- आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871।
- विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों के लिए विकास और कल्याण बोर्ड (DWBDNC)।
- विमुक्त समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण की योजना।
मेंस लिंक:
वर्तमान भारत में खानाबदोश जनजातियों के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय।
सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर
(Sutlej Yamuna Link (SYL) Canal)
संदर्भ:
हाल ही में, हरियाणा विधानसभा द्वारा ‘सतलुज यमुना लिंक नहर’ (SYL Canal) को पूरा करने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया है।
नहर के पूरा हो जाने के बाद, रावी और ब्यास नदियों के पानी को दोनों राज्यों के बीच बटबारे में मदद मिलेगी।
पंजाब की मांगें:
राज्य सरकार के एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2029 के बाद पंजाब में कई क्षेत्र सूख / निर्जल हो सकते हैं। राज्य पहले ही सिंचाई के लिए अपने भूजल का अत्यधिक दोहन कर चुका है, क्योंकि पंजाब हर साल 70,000 करोड़ रुपये के गेहूं और धान उगाकर केंद्र सरकार के अन्न भंडार को भरता है। रिपोर्टों के अनुसार, राज्य के लगभग 79% क्षेत्र में पानी का अत्यधिक दोहन किया जाता है।
ऐसे में सरकार का कहना है, कि किसी दूसरे राज्य के साथ पानी बांटना नामुमकिन है।
सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर और इस पर विवाद:
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
1966 में पुराने (अविभाजित) पंजाब से हरियाणा को अलग किए जाने के बाद, हरियाणा को नदी के पानी का हिस्सा देने की समस्या का जन्म हुआ।
- पंजाब द्वारा ‘नदी या नाले या प्राकृतिक जल धारा के तट से संबंधित सिद्धांतो’ (Riparian Principles) का हवाला देते हुए तथा राज्य के पास पानी के अभाव का तर्क देते हुए ‘रावी और ब्यास नदियों’ के पानी को हरियाणा के साथ साझा करने का विरोध किया गया था।
- फिर भी, केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 1976 में अविभाजित पंजाब के 7.2 मिलियन एकड़ फीट (MAF) जल में से हरियाणा को 35 लाख MAF जल आवंटित करने की अधिसूचना जारी की गयी।
- 1981 में किए गए एक पुनराकलन (Reassessment) में, ब्यास और रावी में बहने वाले पानी की मात्रा का अनुमान 17.17 MAF लगाया गया था, जिसमें से 4.22 MAF पंजाब को, 3.5 MAF हरियाणा को और 8.6 MAF राजस्थान को आवंटित किया गया था।
- इसके पश्चात, पानी की उपलब्धता और बंटवारे के पुनराकलन के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज वी बालकृष्ण एराडी की अध्यक्षता में ‘एराडी ट्रिब्यूनल’ (Eradi Tribunal) की स्थापना की गई। ट्रिब्यूनल ने 1987 में पंजाब और हरियाणा के हिस्सों में क्रमश: 5 एमएएफ और 3.83 एमएएफ की वृद्धि की सिफारिश की।
सतलुज यमुना लिंक नहर:
- सतलुज और उसकी सहायक ब्यास नदी के पानी के अपने हिस्से का उपयोग करने हेतु हरियाणा को समर्थ बनाने के लिए, सतलुज को यमुना से जोड़ने वाली तथा पूरे राज्य से होकर बहती हुई एक नहर का निर्माण किए जाने की योजना बनाई गई थी।
- इस संबंध में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच त्रिपक्षीय समझौता भी हुआ।
- सतलुज यमुना लिंक नहर, सतलुज और यमुना नदियों को जोड़ने के लिए प्रस्तावित 214 किलोमीटर लंबी नहर है। हालाँकि, इस प्रस्ताव के सामने कई अवरोध उत्पन्न हो गए और इसे सर्वोच्च न्यायालय में भेज दिया गया।
हरियाणा की मांग:
हरियाणा अपने हिस्से का 35 लाख एकड़ फुट नदी का पानी पाने के लिए SYL नहर को पूरा करने की मांग कर रहा है। इसका कहना है कि पंजाब को इस संबंध में 2002 और 2004 के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करना चाहिए। वर्तमान में, हरियाणा को रावी-ब्यास जल का 1.62 मिलियन एकड़ फीट पानी मिल रहा है।
प्रीलिम्स लिंक:
- ‘सतलुज यमुना लिंक नहर’ (SYL Canal) का अवलोकन
- सतलुज और यमुना- सहायक नदियाँ और घाटियाँ
- सातवीं अनुसूची के तहत जल संबंधी विषय।
- संविधान के अनुच्छेद 262 का अवलोकन
- अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956- प्रमुख प्रावधान
मेंस लिंक:
ऐसा कहा जाता है कि पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज-यमुना लिंक जैसे जल बंटवारे संबधी निर्णय और समझौते आम तौर पर राजनीतिक रूप से प्रेरित होते हैं, और इसलिए, लागू नहीं हो पाते हैं। क्या आपको लगता है कि नदी के पानी का बंटवारा उभरती हुई जमीनी वास्तविकताओं, विशेषकर भौगोलिक कारकों पर आधारित होना चाहिए?
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ‘कोवाक्सिन’ पर रोक
संदर्भ:
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा हाल ही में, निर्माण से संबंधित मुद्दों के निरीक्षण के बाद ‘संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों’ के माध्यम से कोविड -19 वैक्सीन ‘कोवाक्सिन’ (Covaxin) की आपूर्ति को निलंबित कर दिया गया है।
‘कोवाक्सिन’ के लिए कब अनुमोदित किया गया था?
- कोरोनोवायरस बीमारी से सुरक्षा के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (WHO) द्वारा निर्धारित मानकों पर खरा उतरने के बाद, ‘कोवाक्सिन’ (Covaxin) के लिए नवंबर 2021 में डब्ल्यूएचओ से ‘आपातकालीन उपयोग सूची’ (emergency use listing – EUL) में शामिल किए जाने को अनुमोदन प्राप्त हुआ था।
- किसी टीके को, COVAX पहल के तहत टीके की आपूर्ति का हिस्सा बनने के लिए WHO की ‘आपातकालीन उपयोग सूची’ में शामिल होना एक पूर्व-शर्त है।
- डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रदत्त लाइसेंस ने, ‘भारत बायोटेक’ के लिए COVAX सहित अन्य संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों को ‘कोवाक्सिन’ की आपूर्ति करने का मार्ग प्रशस्त किया था।
वर्तमान विवाद:
‘कोवाक्सिन’ (Covaxin) के लिए ‘आपातकालीन उपयोग सूची’ (emergency use listing – EUL) में शामिल किए जाने को अनुमोदन प्रदान करते समय, WHO द्वारा कोई जांच नहीं की गयी थी।
- इस संबंध में WHO द्वारा मार्च 2022 में ‘जांच’ शुरू की गयी थी और इसके आधार पर डब्ल्यूएचओ ने संयुक्त राष्ट्र की खरीद एजेंसियों के माध्यम से ‘कोवाक्सिन’ की आपूर्ति को निलंबित करने की घोषणा की है।
- अपने निरीक्षण में, डब्ल्यूएचओ द्वारा ‘उचित विनिर्माण प्रक्रियाओं’ (Good Manufacturing Practices – GMP) में कमियां पाईं गयी है।
‘उचित विनिर्माण प्रक्रिया’ (GMP) क्या है?
‘उचित विनिर्माण प्रक्रिया’ / गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (Good Manufacturing Practices – GMP) उत्पादों के लगातार उत्पादन और नियंत्रण गुणवत्ता मानकों के अनुसार किए जाने को सुनिश्चित करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रणाली है।
- इस प्रणाली को किसी भी दवा उत्पादन में शामिल जोखिमों – जिन्हें अंतिम उत्पाद के परीक्षण के माध्यम से समाप्त नहीं किया जा सकता- को न्यूनतम करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
- 100 से अधिक देशों ने अपने ‘राष्ट्रीय औषधि कानूनों’ में WHO के GMP प्रावधानों को शामिल किया जा चुका है, और कई और देशों ने अपनी राष्ट्रीय GMP आवश्यकताओं को परिभाषित करने में इसके प्रावधानों और दृष्टिकोण को अपनाया हुआ है।
- डब्ल्यूएचओ की ‘उचित विनिर्माण प्रक्रिया’ (GMP) का उपयोग ‘डब्ल्यूएचओ प्रमाणन योजना’ और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा खरीद के लिए टीकों की ‘पूर्व योग्यता’ के आधार के रूप में भी किया जा रहा है।
‘कोवाक्सिन’ के बारे में:
‘कोवाक्सिन’ (Covaxin), कोविड- 19 अर्थात SARS-CoV-2 के खिलाफ एक संपूर्ण विषाणु-निष्क्रियक टीका है। इसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे द्वारा साझेदारी में विकसित किया गया है।
इंस्टा जिज्ञासु:
आपातकालीन उपयोग अधिकार (Emergency Use Authorisation – EUA) क्या है? भारत में इसे किस प्रकार विनियमित किया जाता है?
प्रीलिम्स लिंक:
- एंटीजन बनाम एंटीबॉडी।
- टीका कैसे काम करता है?
- टीकों के प्रकार।
- भारतीय औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआई) के बारे में।
- भारत में वैक्सीन अनुमोदन के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया।
मेंस लिंक:
WHO की आपातकालीन उपयोग सूची (EUL) पर एक टिप्पणी लिखिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
सामान्य अध्ययन–III
विषय: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
आईपीसीसी और इसकी आंकलन रिपोर्ट का महत्व
संदर्भ:
हाल ही में ‘अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति’ (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की ‘छठी आकलन रिपोर्ट’ (Sixth Assessment Report – AR6) का तीसरा भाग जारी किया गया है।
- इस रिपोर्ट का पहला भाग पिछले साल अगस्त में जारी किया गया था, जोकि जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार पर केंद्रित था।
- रिपोर्ट का दूसरा भाग जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, जोखिमों और कमजोरियों और अनुकूलन विकल्पों के बारे में है।
- रिपोर्ट का तीसरा और अंतिम भाग उत्सर्जन को कम करने की संभावनाओं को तलाशने पर केंद्रित है।
‘छठी आकलन रिपोर्ट’ (AR6) क्या है?
संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल’ (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट (Sixth Assessment Report – AR6), जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक जानकारी का आकलन करने के उद्देश्य से तैयार की जाने वाली रिपोर्टों की एक श्रृंखला में छठी रिपोर्ट है।
- यह रिपोर्ट अतीत, वर्तमान और भविष्य की जलवायु का अवलोकन करते हुए जलवायु परिवर्तन की भौतिकी का आंकलन करती है।
- इस रिपोर्ट में, मानव-जनित उत्सर्जन की वजह से हमारे ग्रह में होने वाले परिवर्तन और हमारे सामूहिक भविष्य के लिए इसके निहितार्थों के बारे में बताया गया है।
पहली आकलन रिपोर्ट वर्ष 1990 में जारी की गयी थी। इस रिपोर्ट में, पृथ्वी की जलवायु की स्थिति का सबसे व्यापक मूल्यांकन किया जाता है।
अब तक, क्रमशः 1990, 1995, 2001, 2007 और 2015 में पांच आकलन रिपोर्टें जारी की जा चुकी हैं।
आईपीसीसी रिपोर्ट का महत्व:
- ‘अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति’ (IPCC) की रिपोर्ट, विश्व के तमाम देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन का सामना करने हेतु बनाई जाने वाली नीतियों के लिए एक ‘वैज्ञानिक आधार’ प्रदान करती है।
- आईपीसीसी रिपोर्ट्स, अपने आप में नीतिगत निर्देशात्मक नहीं होती हैं; इन रिपोर्ट्स में यह बही बताया जाता है कि, देशों या सरकारों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। ये रिपोर्ट्स, केवल यथासंभव वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ तथ्यात्मक स्थितियों को प्रस्तुत करती हैं।
- और फिर भी, ये रिपोर्ट्स जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्य योजना तैयार करने में बहुत मददगार हो सकती हैं।
- ये रिपोर्टें, वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की प्रतिक्रियाओं पर निर्णय करने हेतु ‘अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं’ का आधार भी बनती हैं। इन्हीं वार्ताओं के तहत, ‘पेरिस समझौते’ और पहले ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ को तैयार किया गया था।
‘अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति’ (IPCC) के बारे में:
‘अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति’ (Intergovernmental Panel on Climate Change – IPCC), मानव प्रेरित जलवायु परिवर्तन पर जानकारी एवं ज्ञान में वृद्धि करने हेतु उत्तरदायी, संयुक्त राष्ट्र का एक अंतर सरकारी निकाय है।
- इसकी स्थापना, वर्ष 1988 में ‘विश्व मौसम विज्ञान संगठन’ (WMO) और ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP)’ के द्वारा की गयी थी।
- मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्जरलैंड।
- कार्य: नीति निर्माताओं को, जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार, इसके प्रभावों और भविष्य के जोखिमों और अनुकूलन और शमन के विकल्पों का नियमित आकलन प्रदान करना।
‘छठी आकलन रिपोर्ट’ (Sixth Assessment Report – AR6) के तीसरे भाग के प्रमुख बिंदु:
- रिपोर्ट में पाया गया है, कि संपूर्ण विश्व में पिछले एक दशक से उत्सर्जन में लगातार वृद्धि जारी है। 2010-19 के दशक में औसत वार्षिक ‘वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन’ मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर था।
- ग्लोबल वार्मिंग को लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए वैश्विक ‘हरित गैसों’ के उत्सर्जन को 2025 से पहले चरम स्तर पर ले जाने और फिर 2030 तक इसे 43% तक कम किए जाने की आवश्यकता है।
- ‘पेरिस समझौते’ के तहत लिए गए संकल्प अपर्याप्त हैं: पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा की गई वर्तमान संकल्पों को ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contributions) के रूप में जाना जाता है।
- विकसित देशों से अत्यल्प ‘जलवायु वित्त’ प्रवाह ने विकासशील देशों में ऊर्जा संक्रमण को प्रभावित किया है।
इंस्टा जिज्ञासु:
पिछली आईपीसीसी रिपोर्ट्स के बारे में आवश्यक जानकारी हेतु पढ़िए।
प्रीलिम्स लिंक:
- IPCC के बारे में।
- ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (NDC) के बारे में।
- पेरिस समझौता।
- आकलन रिपोर्ट
- UNEP
मेंस लिंक:
‘अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति’ (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट द्वारा उजागर की गई चिंताओं के बारे में चर्चा कीजिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
ग्रीन हाइड्रोजन क्षमता
(Green Hydrogen Potential)
संदर्भ:
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन (IOC), लार्सन एंड टुब्रो (L&T), और ReNew Power (ReNew) ने भारत में ‘हरित हाइड्रोजन क्षेत्र’ (Green Hydrogen sector) को विकसित करने के लिए एक ‘संयुक्त उद्यम’ (Joint Venture – JV) कंपनी स्थापित करने के लिए एक बाध्यकारी शर्त-पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं।
संयुक्त उद्यम का लक्ष्य “औद्योगिक पैमाने” पर हरित हाइड्रोजन की आपूर्ति करना होगा।
महत्व:
भारत ‘हरित हाइड्रोजन’ का केंद्र बन सकता है, क्योंकि इसको देश में अक्षय ऊर्जा की प्रचुर मात्रा उपलब्ध होने का एक अंतर्निहित लाभ मिल सकता है।
- भारत, एक उष्णकटिबंधीय देश होने और अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों और प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों के कारण, ‘हरित हाइड्रोजन’ (Green Hydrogen) उत्पादन में एक महत्वपूर्ण लाभप्रद स्थित में है।
- भारत में, नवीकरणीय ऊर्जा से हाइड्रोजन का उत्पादन, प्राकृतिक गैस से इसका उत्पादन करने की तुलना में सस्ता होने की संभावना है।
इस संबंध में किये जा रहे प्रयास:
- केंद्र सरकार द्वारा ‘राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन’ पर मसौदा दिशानिर्देश जारी किए गए हैं, जिसका लक्ष्य घरेलू आवश्यकताओं के लगभग 40 प्रतिशत को पूरा करने के लिए वर्ष 2030 तक हाइड्रोजन उत्पादन को 5 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) तक बढ़ाना है।
- केंद्र सरकार द्वारा ‘इलेक्ट्रोलाइजर्स’ (Electrolysers) के लिए 15,000 करोड़ रुपये की ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटि’व (PLI) योजना शुरू करने के प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है।
- फरवरी में, केंद्र सरकार द्वारा ‘हरित हाइड्रोजन और हरित अमोनिया नीति’ को अधिसूचित किया गया था, जिसके तहत, जुलाई 2025 से पहले ‘हरित हाइड्रोजन’ उत्पादन के लिए स्थापित किसी भी नए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए 25 साल की मुफ्त बिजली प्रदान करने का प्रावधान किया गया है।
- सरकार, तेल शोधन, उर्वरक और इस्पात क्षेत्रों को अपनी आवश्यकताओं के एक निश्चित अनुपात के लिए हरित हाइड्रोजन की खरीद के लिए आवश्यक अधिदेश लागू करने की भी योजना बना रही है।
हरित हाइड्रोजन / ग्रीन हाइड्रोजन क्या है?
नवीकरणीय / अक्षय ऊर्जा का उपयोग करके ‘विद्युत अपघटन’ (Electrolysis) द्वारा उत्पादित हाइड्रोजन को ‘हरित हाइड्रोजन’ (Green Hydrogen) के रूप में जाना जाता है। इसमें कार्बन का कोई अंश नहीं होता है।
ग्रीन हाइड्रोजन का महत्व:
- भारत के लिए अपने ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contribution– INDC) लक्ष्यों को पूरा करने तथा क्षेत्रीय और राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा, पहुंच और उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ ऊर्जा काफी महत्वपूर्ण है।
- ग्रीन हाइड्रोजन, ऊर्जा भंडारण विकल्प के रूप में कार्य कर सकता है, जो भविष्य में नवीकरणीय ऊर्जा के अंतराल को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण होगा।
- परिवहन के संदर्भ में, शहरों के भीतर या राज्यों के मध्य लंबी दूरी की यात्रा या माल ढुलाई के लिए, रेलवे, बड़े जहाजों, बसों या ट्रकों आदि में ग्रीन हाइड्रोजन का उपयोग किया जा सकता है।
ग्रीन हाइड्रोजन के अनुप्रयोग:
- अमोनिया और मेथनॉल जैसे हरित रसायनों का उपयोग सीधे ही उर्वरक, परिवहन, बिजली, रसायन, शिपिंग आदि, जैसी मौजूदा ज़रूरतों में किया जा सकता है।
- व्यापक स्तर पर अपनाए जाने के लिए CGD नेटवर्क में 10 प्रतिशत तक ग्रीन हाइड्रोजन मिश्रण को लागू जा सकता है।
लाभ:
- ग्रीन हाइड्रोजन ऊर्जा भंडारण के लिए खनिजों और दुर्लभ-पृथ्वी तत्व-आधारित बैटरी पर निर्भरता को कम करने में मदद करेगा।
- जिस अक्षय ऊर्जा को ग्रिड द्वारा संग्रहीत या उपयोग नहीं किया जा सकता है, उसका हाइड्रोजन-उत्पादन करने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
इंस्टा जिज्ञासु:
हाइड्रोजन एक अदृश्य गैस है। लेकिन, फिर इसे हरा, गुलाबी आदि नाम किस प्रकार दिए जाते हैं?
प्रीलिम्स लिंक:
- ग्रीन हाइड्रोजन के बारे में
- इसका उत्पादन किस प्रकार किया जाता है?
- अनुप्रयोग
- लाभ
- हाइड्रोजन ऊर्जा मिशन के बारे में
मेंस लिंक:
ग्रीन हाइड्रोजन के लाभों की विवेचना कीजिए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
विषय: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम
(The Scheduled Tribes and Other Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights)
संदर्भ:
‘मूल निवासियों, पारंपरिक वनवासियों और आदिवासियों को टाइगर रिजर्व से बेदखल नहीं किए जाने पर जोर देने वाले क़ानून ‘अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम, 2006’ की अनदेखी करते हुए हाल ही में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने कहा है, कि इन समुदायों का पुनर्वास किया जाएगा ताकि वे अपनी पारंपरिक आजीविका को न खोएं। हालांकि, इनके पुनर्वासन से संबंधित किसी भी तौर-तरीकों के बारे में कोई विवरण नहीं दिया गया है।
वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत, कार्यकर्ताओं ने इन कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए आवाज उठाई जा रही है।
वन अधिकार अधिनियम (FRA) के बारे में:
‘अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम, 2006’ (The Scheduled Tribes and Other Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006), जिसे ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest Rights Acts – FRA) भी कहा जाता है, वर्ष 2006 में पारित किया गया था। यह अधिनियम पारंपरिक वन वासी समुदायों के अधिकारों को कानूनी मान्यता प्रदान करता है।
अधिनियम के तहत अधिकार:
- स्वामित्व अधिकार – वनवासियों अथवा आदिवासियों द्वारा 13 दिसंबर 2005 तक कृषि की जाने वाली भूमि पर, जो कि 4 हेक्टेयर से अधिक नहीं होनी चाहिए, उक्त तारीख तक वास्तव में कृषि करने वाले संबंधित परिवार को स्वामित्व अधिकार प्रदान किए जाएंगे। अर्थात, कोई अन्य नयी भूमि प्रदान नहीं की जाएगी।
- अधिकारों का उपयोग- वनवासियों अथवा आदिवासियों के लिए, लघु वन उपज (स्वामित्व सहित), चारागाह क्षेत्र, तथा पशुचारक मार्ग संबंधी अधिकार उपलब्ध होंगे।
- राहत और विकास अधिकार – वनवासियों अथवा आदिवासियों के लिए अवैध निकासी या बलपूर्वक विस्थापन के मामले में पुनर्वास का अधिकार तथा वन संरक्षण हेतु प्रतिबंधों के अधीन बुनियादी सुविधाओं का अधिकार प्राप्त होगा।
- वन प्रबंधन अधिकार – जंगलों और वन्यजीवों की रक्षा करने संबधी अधिकार होंगे।
पात्रता मापदंड:
वन अधिकार अधिनियम (FRA) की धारा 2(c) के अनुसार, वनवासी अनुसूचित जनजाति (Forest Dwelling Scheduled Tribe – FDST) के रूप में अर्हता प्राप्त करने और FRA के तहत अधिकारों की मान्यता हेतु पात्र होने के लिए, आवेदक द्वारा निम्नलिखित तीन शर्तों को पूरा किया जाना आवश्यक है।
व्यक्ति अथवा समुदाय:
- अधिकार का दावा किये जाने वाले क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति का सदस्य होना चाहिए;
- 13-12-2005 से पहले मूल रूप से वन अथवा वन भूमि का निवासी होना चाहिए;
- आजीविका हेतु वास्तविक रूप से वन अथवा वन भूमि पर निर्भर होना चाहिए।
तथा, अन्य पारंपरिक वनवासियों (Other Traditional Forest Dweller – OTFD) के रूप में अर्हता प्राप्त करने और FRA के तहत अधिकारों की मान्यता हेतु पात्र होने के लिए, निम्नलिखित दो शर्तों को पूरा करना आवश्यक है:
व्यक्ति अथवा समुदाय:
- जो 13 दिसम्बर, 2005 से पूर्व कम से कम तीन पीढि़यों (75 वर्ष) तक मूल रूप से वन या वन भूमि में निवास करता हो।
- आजीविका हेतु वास्तविक रूप से वन अथवा वन भूमि पर निर्भर हो।
अधिकारों को मान्यता देने संबंधी प्रक्रिया:
- प्रक्रिया के आरंभ में, ग्राम सभा द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया जाएगा, जिसमे यह सिफारिश की जाएगी कि, किस व्यक्ति को किस संसाधन पर अधिकार को मान्यता दी जानी चाहिए।
- इसके बाद, प्रस्ताव का उप-मंडल (या तालुका) के स्तर पर और फिर जिला स्तर पर, अनुवीक्षण और अनुमोदन किया जाता है।
अनुवीक्षण समिति (Screening Committee) में तीन सरकारी अधिकारी (वन, राजस्व और आदिवासी कल्याण विभाग) और संबंधित स्तर पर स्थानीय निकाय के तीन निर्वाचित सदस्य होते हैं। ये समितियां अपील पर सुनवाई भी करती हैं।
इंस्टा जिज्ञासु:
क्या आप वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत परिभाषित ‘संकटपूर्ण वन्यजीव आवासों’ के बारे में जानते हैं जिन्हें किया गया है?
प्रीलिम्स लिंक:
- पांचवी अनुसूची के तहत क्षेत्रों को सम्मिलित करने अथवा बहिष्कृत करने की शक्ति
- अनुसूचित क्षेत्र क्या होते हैं?
- वन अधिकार अधिनियम- प्रमुख प्रावधान
- इस अधिनियम के तहत अधिकार
- पात्रता मानदंड
- इन अधिकारों को मान्यता देने में ग्राम सभा की भूमिका
- ‘संकटपूर्ण वन्यजीव वास स्थल’ क्या होते हैं?
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस।
प्रारम्भिक परीक्षा हेतु तथ्य
अरोज आफताब
- अरोज आफताब (Arooj Aftab) “पहली महिला पाकिस्तानी ग्रैमी विजेता” हैं।
- आफताब ने 2014 में अपने स्वतंत्र रूप से ‘बर्ड अंडर वॉटर‘ शीर्षक से अपना पहला एल्बम जारी किया था।
डब्ल्यूएचओ का वायु गुणवत्ता डेटाबेस 2022
- विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) से पहले, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा ‘वायु गुणवत्ता डेटाबेस’ 2022 (Air Quality Database 2022) जारी किया गया है। इसके अनुसार, लगभग पूरी वैश्विक आबादी (99%) डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित वायु गुणवत्ता सीमा से अधिक प्रदूषित हवा में सांस ले रही है।
- WHO द्वारा पहली बार नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) की वार्षिक औसत सांद्रता की ज़मीनी स्तर पर माप की गई है।
- इसमें 10 माइक्रोन (PM10) या 2.5 माइक्रोन (PM2.5) के बराबर या छोटे व्यास वाले पार्टिकुलेट मैटर का माप भी शामिल है।
- प्राप्त निष्कर्षों ने डब्ल्यूएचओ को जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर अंकुश लगाने, और वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिये अन्य ठोस कदम उठाने के महत्त्व को उजागर करने के लिए प्रेरित किया है।
प्रमुख निष्कर्ष:
- रिपोर्ट के अनुसार “पूर्वी भूमध्यसागरीय और दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता सबसे खराब है, इसके बाद अफ्रीका का स्थान है”।
- पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की उच्चतम सांद्रता पाई गई है।